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जिनहर्ष-ग्रन्थावली
१६५ जे राचइ पिणि विरचई नही, ते साथई मिलीयई धाइ हो । राचीनइ जे विरची रहइ, तिणि सुतउ मिलइ वलाइ हो ॥वि॥ राज मुगति तणउ तुम्हे भोगवउ, कुमणा नही किणि ही बात हो । अमनइ {क्या वीसारनई, रिसहेसर एसी धात हो ॥ वि ॥ पोताना गुण जोई करी, करिज्यो जिम रुडु थाइ हो । लेखविज्यो सहुनइ सारिखा, मन भ्रांति म धरिस्यउ कोई हो।१० हित नयणे साम्हउ जोइज्यो, एतलइ मुझ लाख पसाव हो । जिनहरप सेवक सुखीया करउ, एतला मइ सगलउ भाव हो।११।
धुलेवा श्रादि-जिन-स्तवन
__राग-काफी ताल पजाबी जिन तेरी छाय रही हैं, महिमा जग अभिराम ॥जि०॥ नाभि नृपति मरुदेवी को नंदन, धुलेवे जग धाम ॥१ जि०॥ विपति विडारण भक्ति उधारण, तारण त्रिभुवन श्याम ।।जि.२।। तुम दरशन मुझ चित नित वसियो, ज्यू लोभी मन दाम ॥३॥ महर निजर निहारो मेरे साहिब, पूरो वंछित काम ॥ जि.४ ॥ श्री जिनहरप सुरिंद के साहिव, प्रातम तो विसराम ॥ जि. ५ ॥
शत्रुञ्जय स्तवन अवला आखै सगला साखै, प्रीतम मुझ वीनती सुणौ । चालौ श्री. विमलाचल भेटण, सफल जुमारौ कीजै आपणौ ॥१॥ तुरत कारीगर खातीडा तेडावो, वहिली घड़ावौ पातली । दोय सोरठिया वलद जोतावो, इतरी पूरो मन रली ॥२॥