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जिनहर्ष-ग्रन्थावली
१४३ करम खप्या थी वलि इग्यार अतिसय कहिवाये, देव तणा कीधा विसेस अतिसय उगणीस, सर्व मिल्यां जिनराय तणा अतिसय चउत्रीस । सुरज कोडि थकी घणु ए केवल ग्यान प्रकास । घउ सेवा जिनहरेख ने सफल करउ अरदास ॥ ३॥ .. ॥ इति शत्रुञ्जय आदिनाथ नमस्कार ।। ...
शत्रुञ्जय अबुदनाथ स्तवन । - ढाल-नंद्या म करिज्यो कोई पारिकी रे ॥ एहनी-।। अबुदनाथ जुहारीयइ रे, काई शत्रुजनउ सिणगार रे । सुंदर रूप सुहामणउ रे, वारू नखसिख अवल आकार रे ॥१॥ मोटी रे मूरति सूरति जोवतां रे,म्हारा मनथी मेल्हणी न जाय रे । नयणे लागी तुझ प्रीतडी, वाल्हा देखी२ सीतल थाय रे ॥२॥ धन कारीगर तेहना रे, काई सोनइ मढीयइ हाथ । जिणि मूरति एहवी घड़ी रे, धन थाप्या अबुदनाथ रे ॥३॥ ऊचारे इग्यारे पावडी ए चडी रे, वारू तिलक वणावइ सीस रे। एहवी रे मूरति किहां दीठी नहीं रे, आज दीठी पूगी जगींस रे।४। जोयांरेहीयडु म्हारुऊलसइ रे,जाणु अहनिशि देख्ताहरु रूपरे पलक न रहीयइ तुझ सुवेगला रे, ते तउ जाणई तुही सरूप रे । ५ माहरांरे वंछित साहिब पूरवउरे. तउ वीनती करू करजोडि रे। भववंधण माहे पड्युरे, हिवइ तेहथी मुझ न, छोड़ि रे ।६अ।