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जिनह - प्रन्थावली
शत्रुञ्जय - स्तवन
ढाल - साधु गुण गरुप्रारे ॥ए देशी श्री विमलाचल गुण निलउ मन मोहाउ रे, जिहां सीधा साधु अनंत । शत्रुंजय मन मोह्यउ रे ।
तीरथ नही ए सारिखउ | म ।
वीजउ कोई गुणवंत ॥ करइ कुगति नउ
करइ | म । ते
विधि सु जे यात्रा सात आठ भवमां सही | म । बारह परसद गलई | म | श्री सीमंधर
ते
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१श ॥ छेद | श
मुगति लहइ द्र वेद || २ ||
शत्रु जय यात्रा तराउ | | प्रभु पुन्य विम कुंडल गिरई । म । रुचक त्रिगुण फल पामीयइ | म ।
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तेह थी पुन्य विम हुवइ | म | छगु खंड धातकी | म | ं ं
कहह एम शि पुन्य कहइ धरि प्रेम || ३ || नंदीश्वर द्वीप थी होड़ श | चउ गुण गजदंते जोई ||४|| जंबू विरख मन आणी । श पुक्खर बावीस वखाणी ॥५॥ सात गुणउ कनकाचलड़ | म । वली श्री सम्मेत गिरिं । श सहस गुणउ फल तिहां लहइ | म| सांभलिज्यो इंद नरिंद || ६ || लाख गुणउं फल पामीय | म | अंजण गिरि फेरि यात्र | श दश लक्ष अष्टापद गिरह | म पुन्य करइ निरमल मात्र ॥ ७ ॥ कोडि गुण फल पामीय | म शत्र जय भेट लहंत | श एह थी अधिक को नही । म कहइ सीमंधर भगवंत || ८ || यात्रां छहरि पालतां |म भाव करिस्य कहा जिनहरप सदा सुखी | म तरिस्य लंहिस्य
इति श्री शत्रु जय स्तवन ।।
नर नारि |श | भवपार || ||