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मातृका-बावनी
ओंकार अपार जगत आधार सवे नर नारि संसार जपें हैं, वावन्न अक्षर मांहि धुरक्षर ज्योति प्रद्योतिन कोटि तपे हैं। सिद्ध निरंजन भेख अलेख सरूप न रूप जोगेंद्र थपे हैं, एसो माहातम हे ओंकार को पाप जसा जाके नाम खपे हें ।१। नग्ग चिंतामण डारि के पत्थर जोउ गहें नर मूरख सोई, सुंदर पाट पटवर अंबर छोरि के ओढण लेत हे लोई । काम-दुघाघर तें जु विडार के छैल गहें मति मंद जि कोई, धर्म कू छोड़ अधर्म करे जसराज उणें निज बुद्धि वगोई ॥२॥ मच्छर तो मन को तजीयइ भजीयइ भगवंत अनंत सदाई, श्री भगवंत के जाप किये भव ताप संताप रहई न कदाई । पूजत जो प्रभु के चरणांबुज ताहि सुराधिप मांने वडाई, जो गुण गात जसा जगनाथ कोताहु कि जात मिथ्यात जडाई।।३।। सिद्ध सोई उपजें न संसार में रिद्ध सोई कह खात न खूटें, कंचन सो कसवट्ट चडे फुनि वज सोई धन घाउ न फूटें । पंडित मोई सभा • रिजाउत सूर सोई सनमुखहि जु, दांन सोई बहु मांन सुदिजें ससनेह जसा कबहुं जुन तुट्टे।४।