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जिनहर्प-ग्रन्थावली तंइ कीधी काइ मोहनी, देखण तरसइ नइण लाल रे ।
वाल्हउ लागइ ताहरउ,
दरसण वाल्हा सहण लाल रे ॥४॥ ठामे ठामे ठावका, देवल देवल देव लाल रे ।
पिणि ते मन माना नहीं,
न करू तेहनी सेव लाल रे ॥५॥ सेवा कीजइ तेहनी, जे पूरइ मन आश लाल रे।
सेवा फल लहियड नहीं,
संग न कीजइ तास लाल रे ॥६.।। साहिब गुण परिमल भर्या, कहइ जिनहर्प विकाश लाल रे ।
वीजा सुर डहकावणा, फूल्या जाणि पलास लाल रे ॥७य.।।
= कलश - [ढाल-कागलियउ करतार भणी सी परि लिखू -एहनी] विहरमान वीसे नित चंदिय रे, अढीयां दीपां मांहि । भवियण मन संदेह निवारता रे,सेवइ सुरनर पाय ॥१वि.।। ए बीसेइ सुरतरु सारिखा रे, मन वंछित दातार ।
भाव भगति इक चित्त आराधतां र, . - लहियइ भव जल पार रवि.।।