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जिनहर्प-ग्रन्थावली विशाल-जिन स्तवन
[ढाल-सूहव री] आज लाउ मंइ भेदो, हियडइ जागी हो सुमति सुनिरमली। मनमई अधिक उमेदो, पूगी माहरी हो सगली ही रली ।१। अंतर कंचण काचो, अंतर जिबड़ो हो सर सायर खरउ । अंतर मिथ्या साचो, जिनवर बीजां होड़ बड़ो आंतरउ ।२। दीठा देव अनंतो, ताहरी समवड़ हो को नावइ सही । ताहरा गुण अरिहन्तो, किण ही माहे हो मइ दीठा नहीं।३ केहा ते कहउ देवो, स्वारथ भीनां हो जे अहनिशि रहइ । तेहनी करतां सेवो माहरउ मनड़ो हो हिवइ तो नवि वहइ।४। __ ज्यां सुपड़ि मन भ्रातो, __ त्यां सुहियडउ हो कहउ नइ किम हिलइ । भेटण नावइ खांतो, मन मोताहल हो भागा नवि मिलइ।५ तु साहिब सिरदारो, तुझ नइ छोडी हो नाथ न को करु । मई कीधी इकतारो, इण भवि तू ही हो वीजो नादरू।६। श्री विशाल गुण गेहो, मुझ नइ दीजई हो दर्शन रावलउ । कहइ जिनहर्ष सनेहो, तुझ नइ मिलिवा हो मन उतावलऊ ७
वज्रधर-जिन स्तवन [ढाल–चवर ढुलावइ गजसिंह रउ छावी महल मे] . अधिक विराजड् वज्रधर साहिवारी साहिवी जी,