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जिनहर्ष ग्रन्थावाली
गरज न का जिणसु सरह, कीजड़ ऊभा ऊभा ऊभ जुहार । साहिब तुम विरण को नही, म्हांरा मनरउ मान्यउ मीत । कes 'जिन' निवाहिज्यो, मुझ सेती सेती अविहड़ प्रीत |
अनन्तवीर्य - जिन - स्तवन
[ ढाल - हिवरे जगत गुरु शुद्ध समकित नीमी प्रापियइ ] आज ऊमाही जीभड़ी, होजी करिवा प्रभु गुण ग्राम । जन्म सफल' माहरउ हुसी, होजी हियड़ड़ धरतां नाम ॥१॥ हिव रे सखाइ श्री अनंत - वीरज थासी माहरउ जी । तउ फलिसी हो मुझ यश जगीश कि, दिवस हुसी मुझ पाधरउ जी ॥२॥
मोटां नी मीटर करि, होजी सीझड़ सगला काज | फल मनोरथ मन तणा, होजी जउ तू सह महाराज || ३ हि. ||
मोटा तर विरचइ नहीं, होजी कदेय न दाखड़ छेह |
सा पुरसा री प्रीतड़ी, होजी पाथर केरी रेह ॥ ४ ॥ हि ।
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हिला न किया था, होजी तुझ विणि जे दिन जाइ । श्राशा लूधां सेवकां, होजी दरसण न दियइ कांइ ॥ ५ हि . ॥
उ' ही कां सु करइ, होजी इवड़ी खांचा ताण |
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हेज हीयाली दे' मिलउ, होजी हियड़ड़ करुणा आण ॥ ६ हिं. ॥
१ सफला थास्यइ हिवे । २ यु ।
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