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जिनहर्प-ग्रन्थावली
मुझनइ मेलउ किहां थकी' ताहरउ हुइ जिनराज रे लाल । तउ पिण सेवक जाणिनई,करिज्यो काइ निवाज रे लाला६। विहरमाण मुझ वंदणा, जाणेज्यो निसदीस रे लाल । वात सुजात किसी कहुं, तु जिनहरप जगीस रे लाल ७/
स्वयंप्रम-जिन-स्तवन . .
[ढाल -राजरनी] माहरा मननी बात, दाखु सगली हो आगलि ताहरइ । तु मांहरड़ पित्त मात, अलगउ न रहइ हो मन थी काहरइ।१ हुँ भमियउ भव मांहि जनम मरणना हो बहुला दुखसह्या । तु जाणै जिनराड, एकणि जीभ हो किम जायह कह्या २॥ नह रहइ चंचलचीत, वार्यउअहनिसि हो रति प्रारति सहुँ । पर रमणी सुप्रीति, काम विटंबण हो हूं केही कहुं ॥३॥ विनडइ माया मोह, क्रोध न छोडइ हो माहरी पाखती । न मिटड् किमइ लोह', मान माया तउहो न घटइ इक रती।४। नयण वयण नहीं ठाम विकथा च्यारे हो राति दिवस करू हीयडइ ताहरउ नाम, नावइ किण परि हो भवसायर तिरू माहरउ पापी जीव, केइ वातां हो मनमइ चीतवइ । . . . करिसी नरगइ रीव, सूची सेवा हो ताहरी नवि हवइ ।६। १ भाग विना।२ मुझनइ सामि । ३ कांडक । ४ सोह न वाधइ हो जेह पी रथ रिती । ५ दुरगति ।