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प्रामथने
सुकवि- जिनहर्प राजस्थान के विशिष्ट कवि हैं जिन्होने साठ वर्ष पर्यन्त राजस्थानी, गुजराती भापा में निरन्तर साहित्य रचना करके उभय भापाओं के साहित्य भण्डार को खूब समृद्ध किया। उन्होने प्रधानतया जैन प्राकृत, सस्कृत कथा ग्रन्थों को आधार बनाकर रास, चौपाई भाषा-काव्यो को रचना की है। उनकी फुटकर रचनाए भी काफी मिलती हैं जिनका गत ३०० वर्षों में अच्छा प्रचार रहा है। जब हम वालक थे अपने घर, मन्दिर व उपासरो में कवि जिनहर्ष की रचनाय-स्तवन, सज्झाय, श्रावककरणी आदि सुनकर कवि के प्रति हमारा आकर्षण बढता गया। साहित्य क्षेत्र में जब हमने प्राचीन कवियो और उनकी रचनाओ की खोज का कार्य प्रारम्भ किया तो जिनहर्प की, रचनाओ का हमें विशेप परिचय मिला, तथा इतनी अधिक रचनाओ की जानकारी मिली जिसकी हमें कल्पना तक न थी। कवि का प्रारम्भिक जीवन राजस्थान में वीता पर किसी कारणवश स० १७३६ में कवि पाटण गए और उसके बाद केवल सं० १७३८ में राधनपुर चौमासा करने के अतिरिक्त स० १७६३ तक सभी समय पाटण मे,ही विताया। इसीलिए कवि की पिछली रचनाओ में गुजराती का प्रभाव विशेष रूप से देखा जाता है। प्रारम्भिक रचनाए अधिकांश राजस्थानी व कुछ हिन्दी में भी हैं। पाटण में अधिक रहने के कारण उनकी अनेक रचनाए वही के ज्ञानभण्डारों में उपलब्ध है और उनमें से बहुत-ती कृतियां तो कवि के स्वयं लिखित हैं।