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________________ ( ७८ ) (१८७) राग-ललित, एकतालो । कहाजी कियौ भव धरिकैं रे वाह वाहोजी तुम ॥ कहा० ॥ टेक ॥ नरभव श्रीजिनवरमत पायौ, लख चौरासी फिरिकैं; रे वाह वाहो ॥ कहा० ॥ १ ॥ परद्रव्यनितें रीझत खीजत, या कुटिलाई करिकै । भटके हो अति भटकोगे पुनि, जन्म मरन दुख भरिकै, रे वाह वाहो ॥ कहा० ॥ २ ॥ अव सुख दुखमें बूड़त हो क्यों, तनमें आप विसरिकैं । करि पुरुषारथ शिवपुर चालौ, बुधजन भवदधितरिकै, रे वाह वाहो ॥ कहा० ॥ ३ ॥ 1 (१८८) राग-ललित एकतालो । हमारी पीर तो हरौ जी, अजी, यौं सुनियों जी सेवक ओर चितइयौं || हमारी० ॥ टेक ॥ हम जगवासी तुम जगनायक, इतनी रीति निवहियौ || हमारी० ॥ १ ॥ ज्ञान आपना भूलि रहे हैं, मोह नींद वग गइयाँ । कर्म चोर मिलि हमकों लूटत, करुना धारि जगड्यौ जी ॥ हमारी० ॥ २ ॥ दुखी अनादि काल भव भरमत, जिन तुम दर्शन लड्यौ । अब फिरना हरि गरना दीजे, बुधजन सीस नमड्यौ जी | हमारी० ॥ ३ ॥ (१८९) राग-ललित एकतालो । 1 बधाई भई है महावीर, हो जी म्हारै, नैंनन लखि हर५ ॥ बधाई० ॥ टेक ॥ वनि आई सव मौज री, मुख
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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