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________________ (७७) (१८४) राग-भैरों। पूजत जिनराज आज, आपदा हरी । दरस्यौ तत्त्वार्थ मोहि धन्य या घरी ॥ पूजत० ॥ टेक ॥ छल वल मद क्रोध मेरी, ऊंचता करी । अव लौ या जानत सो, वात निरवरी ॥ पूजत० ॥१॥ राजपदी छोरिक, विरागता धरी । तासौं जिनराज भये, दृष्टि या परी ।। पूजत० ॥२॥ आन भाव जन्म जन्म, कीन बहु वरी। यातें गति चार वीच, विपति अति भरी ॥ पूजत० ॥ ३ ॥ वुधजन जिन शरन गयो, मिट गई मरी । आपमाहिं आप लख्यौ, शुद्ध .' • आपरी ॥ पूजत० ॥ ४ ॥ (१८५) -17... ... . राग-भैरवी। तें तो गुरु सीख नमानी, नमानीरे मोरे जिया फिरविपयनिसौंरतिमानी ॥ तै०॥ टेक॥ इनहीके कारन चहुँगति, डोल्यौ रे भाई । सुन ताकी कौलग कहूं कहानी ॥ तें तौ० ॥१॥ गई सो गई अव वुधजन समझौ रे भाई, तू तौ करिलै जिनमत उर सरधानी ।। तें तौ० ॥ २ ॥ (१८६) राग-झिंझोटी। सजनी मिलि चालौं ये पूजनकाज ॥ सजनी० ॥ टेक ॥ . समोसरन वन आय विराजे, वीरनाथ महाराज ॥ सज- '. नी० ॥१।। सखियन संग चेलना रानी, भगत करै मन- ! लाय । वे प्रभु दीनदयाल जगतके, हितकर धर्म-जिहाज ! ॥ सजनी० ॥२॥
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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