________________
द्वितीयभाग। __ '४५ गृहके, आंगनमांझ उगाया । स्वर्ग विमोक्ष विलास चास पुनि, मम करतलमें आया आ०॥३॥कलिमल पंक सकल अब मैंने, चितसे दूर बहाया । भागचन्द तुम चरनाम्युजको, भक्तिसहित सिर नाया |आ०॥
राग दीपचन्दी परन । . महाराज श्रीजिनवर जी, आज मैंने प्रभुदर्शन पाये ॥टेक॥ तुमरे ज्ञान द्रव्य गुन पर्जय, निज चित गुन दरशाये । निज लच्छनतें सकल विलच्छन, ततछिन पर दृग आये ॥ ॥१॥ अप्रशस्त संक्लेशभाव अघ, कारन ध्वस्त कराये। राग प्रशस्त उदयतें निर्मल, पुन्य समस्त कमाये ॥म० ॥२॥ विषय कषाय अताप नस्यो सब, साम्य सरोवर न्हाये । रुचि भई तुम समान होवेकी, भागचन्द गुन गाये ॥ म०॥३॥
राग दीपचन्दी जोड़ी। जिन स्वपरहिताहित चीना, जीव तेही हैं साचै जैनी ॥ टेक ॥ जिन बुधछैनी पैनीतें जड़, रूप निराला कीना, परतें विरच आपसे राचे, सकल विभाव.विहीना | जि० ॥१॥ पुन्य पाप,विधि बंध उदयमें, प्रमुदित होत न दीना । सम्यकदर्शन ज्ञान • चरन निज, भाव सुधारस भीना ॥ जिन० ॥२॥