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________________ जैन पदसंग्रह हरिगन चमरवृन्द ढोरत तहां, उज्जल जेम मराल ॥ स्वामी ० ॥ १ ॥ छनत्रय ऊपर राजत पुनि, सहित सुमुक्तामाल || स्वामी० ॥ २ ॥ भागचन्द ऐसे प्रभुजीको, नावत नित्य त्रिकाल || स्वामी० ३ ॥ ४४ राग दीपचन्दी | करौ रे भाई, तत्त्वारथ सरधान । नरभव सुकुल सुछेत्र पायके ॥ टेक ॥ देखन जाननहार आप लग्वि, देहादिक परमान ॥ करौ रे भाई० ॥ | १ || मोह रागमम्प अहित जान तजि, बंधहु विधि दुग्वदान ॥ करौ रे भाई० ॥ २ ॥ निज स्वरूपमें मगन होय कर, लगनविषय दो भान ॥ करौ रे भाई० ॥ ३ ॥ भागचन्द साधक व्है साधी, साध्य स्वपद अमलान || करौ रे भाई ० ॥ ४ ॥ } ८१ आनन्दाश्रु बहैं लोचनतें, तातें आनन न्हाया । गङ्गदं स्पष्ट वचनजुत निर्मल, मिष्टगान सुरगाया ॥टेक॥ भवं वनमें बहु भ्रमन कियो तहां, दुख दावानल ताया। अब तुम भक्तिसुधारस वापी, में अवगाह कराया ॥० ॥ १ ॥ तुम वपुदर्पनमें मैंने अब, आत्मस्वरूप लखाया । सर्व कषाय नष्ट भये अब ही, विभ्रम दुष्ट भगाया ॥ ०॥ २ ॥ कल्पवृक्ष मैंने निज
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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