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द्वितीयभाग ।
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कांच गहत शठ ॥ टेक ॥ विषय कषाय रुचत तोकौं नित, जे दुखकरन अरी । हरी तेरी ० ॥ १॥ सांचे मित्र सुहितकर श्रीगुरु, तिनकी सुधि विसरी । हरी तेरी ० ॥ २ ॥ परपरनतिमें आपो मानत, जो अति विपति भरी । हरी तेरी० ॥ ३ ॥ भागचन्द जिनराज भजन कहुँ, करत न एक घरी । हरी तेरी० ॥ ४ ॥
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सुमर मन समवसरण सुखदाई । अशरन शरन धनदकृत प्रभुको ॥ टेक ॥ मानस्तंभ सरोवर सुंदर, विमल सलिलजुत खाई । पुष्पवाटिका तुंगकोट पुनि, नाट्यशाल मनभाई ॥ सुमर मन० ॥ १ ॥ उपवन जुगल विशाल वेदिका, धुजपंकति हलकाई । हाटक कोट कल्पतरुवन पुनि, द्वादश सभा वरनि नहिं जाई || सुमर० ॥ २ ॥ तह त्रिपीठपर देव स्वयंभू, राजत श्रीजिनराई | जाहि पुरंदरजुत वृन्दारक वृन्द सुवेदत आई | भागचन्द हमि ध्यावत ते जन, पावस जगठकुराई ॥ सुमर मन० ॥ ३ ॥
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सोई है सांचा महादेव हमारा । जाके नाहीं रागरोष गद, मोहादिक विस्तारा ॥ टेक ॥ जाके अंगन भस्म, लिप्त है, नहिं रुंडनकृत हारा। भूषण व्याल न माल चन्द्र नहिं, शीस जटा, नहिं धारा ॥ सोई है ० ॥ १ ॥