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द्वितीयभाग.
जिमि मार्तंड प्रकाश गगनमें || वीतराग० ॥ १ ॥ अप्रमेय ज्ञेयन के ज्ञायक, नहि परिनमत तदपि ज्ञेयनमें | देखत नयन अनेकरूप जिमि, मिलत नही पुनि निज विपयनमें ॥ वीतराग० ||२|| निज उपयोग आपने स्वामी, गाल दिया निश्चल आपनमें । है असमर्थ वाह्य निकसनको, लवन घुला जैसें जीवनमें ॥ वीतराग० ॥ ३ ॥ तुमरे भक्त परम सुख पावत, परत अभक्त अनंत दुखनमें । जैसो मुख देखो तेसो है, भासत जिम निर्मल दरपनमें ॥ वीतराग० ॥ ४ ॥ तुम कपाय विन परम शांत हो, तदपि दक्ष | कमरिहतनमें । जैसे अतिशीतल तुपार पुनि, जार देत द्रुम भारि गहनमें ॥ वीतराग० ॥ ५ ॥ अब तुम रूप जथारथ पायो, अब इच्छा नहिं अन कुमतनमें । भागचन्द अम्रतरस पीकर, फिर को चाहे विष निज मनमें ॥ वीतराग० ॥ ६ ॥
१२.
राग डुमरी ।
बुधजन पक्षपात तज देखो, साँचा देव कौन है इनमें ॥ बुधजन० ॥ टेक ॥ ब्रह्मा दंड कमंडलधारी, स्वांत भ्रांत वश सुरनारिनमें । मृगछाला माला मौंजी पुनि, विषयासक्त निवास नलिनमें ॥ बुधजन० ॥ १ ॥ शंभू खट्टाअंगसहित पुनि, गिरिजा भोगमगन निशदिनमें । हस्त कपाल
१ जीवन शब्दका अर्थ जल भी होता है ।