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जैनपदसंग्रह. प्रवचनकी भक्ति जतनसेति वुद्धि धरो नित्य, आवश्यक क्रियामें न, हानि कर कदाई ॥६॥ धर्मकी प्रभावना सु, शर्मकर वढावना सु, जिनप्रणीत सूत्रमाहि, प्रीति कर अघाई ।। ७॥ ऐसे जो भावत चित, कलुपता वहावत तमु, चरनकमल ध्यावत वुध, भागचंद गाई । पोड़श० ॥८॥
१०.
प्रभाती। श्रीजिनवर दरश आज, करत सौख्य पाया । अप्ट प्रातिहार्यसहित, पाय शांति काया ।। टेक ॥ वृक्ष है अशोक जहां, भ्रमर गान गाया। सुन्दर मन्दार-पहुप, वृष्टि होत आया ॥१॥ ज्ञानामृत भरी वानि, खिरै भ्रम नसाया । विमल चमर ढोरत हरि, हृदय भक्ति लाया ॥२॥ सिंहासन प्रभाचक्र, वालजग सुहाया। देव दुंदुभी विशाल, जहां सुर बजाया ॥ ४ ॥ मुक्ताफल माल सहित, छत्र तीन छाया । भागचन्द अद्भुत छवि, कही नहीं जाया ॥ श्रीजिन०॥५॥
११.
राग ठुमरी। वीतराग जिन महिमा थारी, वरन सके को जन त्रिभुवनमें ॥ वीतराग० ॥ टेक ॥ तुमरे अतट चतुष्टय प्रगट्यो, निाशेषावरनच्छय छिनमें । मेघ पटल विघटनतें प्रगटत,