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द्वितीयभाग. .
पाय वर शिवरानी ॥२॥ मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहांत चितभ्रम ठानी । भ्रमत अर्घपुद्गलमावतेन, किंचित् ऊन काल परमानी ॥२॥ निज परिनामनिकी सभालमें, तात गाफिल मत व्है प्रानी । बंध मोक्ष परिनामनिहीलों, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ।। ॥ ३ ॥ सकल उपाधिनिमित भावनिसों, भिन्न सु निज परनतिको छानी। ताहि जानि रुचि ठानि होहु थिर, भागचन्द यह सीख सयानी ।। जीवनके पर० ॥४॥
परनति सब जीवनकी, तीन भाँति वरनी। एक पुण्य एक पाप, एक रागहरनी ॥ परनति० ॥ टेक ॥ ताम शुभ अशुभ अंध, दोय करें कर्मबंध, वीतराग परनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोग, पावत नाहीं मनोग, तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी ॥ २॥ त्याग शुभ क्रियाकलाप, करो मत कदाच पाप, शुभमें न मगन होय, शुद्धता विसरनी ॥३॥ उंच उंच दशा धारि, चित प्रमादको विडारि, ऊंचली दशात मति, गिरो अधो धरनी ॥४॥ भागचन्द्र या प्रकार, जीव लहै सुख अपार, याक निरधार स्याद, बादकी उचरनी ॥ परनति० ॥५॥
. जीव ! तू भ्रमत सदीव अकेला । सँग साथी कोई नहिं