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________________ . जैनपदसंग्रह. हो ॥ १॥ जिन अशुभोपयोगकी परनति, सत्तासहित : विनाशी हो । होय कदाच शुभोपयोग तो, तहँ भी रहत उदासी हो ॥२॥ छेदत जे अनादि दुखदायक, दुविधि बंधकी फाँसी हो । मोह क्षोभ रहित जिन परनति, विमल मयंक-कला सी हो ॥३॥ विपय-चाह-दव-दाह खुजावन, साम्य सुधारस-रासी हो । भागचन्द ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ॥ धन० ॥४॥ यही इक धर्ममूल है मीता!निज समकितसार-सहीता। यही० ॥ टेक ॥ समकित सहित नरकपदवासा, खासा बुधजन गीता। तहते निकसि होय तीर्थकर, सुरगन जजत सप्रीता ॥ १ ॥ स्वर्गवास हू नीको नाही, विन समकित अविनीता । तहतें चय एकेंद्री उपजत, भ्रमत सदा भयभीता ॥ २ ॥ खेत बहुत जोते हु वीज विन, रहित धान्यसों रीता। सिद्धि न लहत कोटि तपहूते, वृथा कलेश सहीता ॥ ३ ॥ समकित अतुल अखंड सुधारस, जिन पुरुषननें पीता। भागचन्द ते अजर अमर भये, तिनहीने जग जीता ।। यही इक धर्म० ॥४॥ ४. राग ठुमरी। ___ जीवनके परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी ॥ टेक ॥ नित्य निगोदमाहितें कदिकर, नर पर• जाय पाय सुखदानी । समकित लहि अंतर्मुहूर्तमें, केवल
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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