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जैनपदसंग्रह । लत स्वरचि परविरचि सतगुरु, शीख नित उर घर यही ॥ ११ ॥
__ होली १११. ___ ज्ञानी ऐसी होली मचाई० ॥ टेक ॥ राग कियो विपरीत विपन घर, कुमति कुसौति सुहाई । धार दिगंबर कीन्ह सु संवर, निज-परभेद लखाई । घात विषयनिकी वचाई ॥ ज्ञानी ऐसी०॥ १॥ कुमति सखा भजि ध्यानभेद सम, तनमें तान उड़ाई । कुंभक ताल मृदंगसों पूरक, रेचक बीन बजाई । लगन अनुभवसों लगाई ॥ ज्ञानी ऐसी०॥ २॥ कर्मवलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द्रि गनाई । दे तप अमि भस्म करि तिनको, धूल अघाति उड़ाई । करी शिव तियकी मिलाई ।। ज्ञानी ऐसी० ॥३॥ ज्ञानको फाग भागवश आवै, लाख करौ चतुराई । सो गुरु दीनदयाल कृपाकरि, दौलत तोहि बताई । नहीं चितसे विसराई ॥ ज्ञानी ऐसी होली मचाई ।। ४॥