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प्रथमभाग। रन निकट्यो, सह्यो संकट मानसी । सुरविभव दुखद लगी जवै तव, लखी माल मेलान सी॥ तवही जु सुर उपदेशहित समु, झायियो समुझ्यो न त्यों। मिथ्यात्वजुत च्युत कुगति पाई, लहै फिर सो स्वपद क्यों? ॥९॥ यों चिरभव अटवी गाही, किंचित साता न लहाही । जिनकथित धरम नहिं जान्यो, परमाहिं अपनपो मान्यो ।। मान्यो न सम्यक त्रयातम, आतम अनातममें फँस्यो। मिथ्याचरन दृग्ज्ञान रंज्यो, जाय नवग्रीवक वस्यो । पै लह्यो नहिं जिनकथित शिवमग, वृथा भ्रम भूल्यो जिया । चिदभावके दरसाव विन सव, गये अहले तप किया ॥ १० ॥ अब अदभुत पुण्य उपायो, कुल जात विमल तू पायो । यातें सुन सीख सयाने, विषयनसों रति मत ठाने । ठाने कहा रति विषयमें ये, विषम विधरसम लखो। यह देह मरत अनंत इनको, त्याग आतमरस चखो ॥ या रसरसिकजन वसे शिव अव, वसे पुनि वसि हैं सही । दौ१ भाला । २ मुरझानी हुई । ३ व्यर्थ । ४ सर्प ।