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जैनपदसंग्रह।
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जिनरागदोषत्यागा वह सतगुरू हमारा। जिनराग० ॥ टेक ॥ तज राजरिद्ध तृणवत निज काज संभारा । जिनराग०॥१॥ रहता है वह वनखंडमें, धरि ध्यान कुठारा । जिन मोह महा तरुको, जड़मूल उखारा । जिनराग०. ॥ २॥ सर्वांग तज परिग्रह, दिगअंबर धारा। अनंतज्ञानगुनसमुद्र, चारित्र भंडारा ॥ जिनराग० ॥ ३ ॥ शुक्लामिको प्रजालके वसुकानन जारा। ऐसे गुरूको दौल है, नमोऽस्तु हमारा ।। जिनराग० ॥ ४॥
चिदरायगुन मुनो सुनो, प्रशस्त गुरुगिरा। समस्त तज विभाव, हो स्वकीयमें थिरा । चिद० ।। टेक ॥ निजभावके लखाव विन, भवाब्धि परा। जामन सरन जरा त्रिदोष, अग्निमें जरा | चिद०॥१॥ फिर सादि औ
१ यह पद दौलतरामजीका नहीं मालूम होता, इसका पाठ भी गड़बड़ है।