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जैनपदसंग्रह। धनादि प्रगट पर, ये मुझते हैं भिन्नप्रदेशें । इ. नकी परनति है इन आश्रित, जो इन भाव परनवें वैसें ॥ ज्ञानी० ॥१॥ देह अचेतन चेतन मैं इन, परनति होय एकसी कैसें। पूनगलन खभावधरै तन, मैं अज अचल अमल नभ जैसें॥ ज्ञानी० ॥२॥ पर परिनमन न इष्ट अनिष्ट न, वृथा रागरुष द्वंद भयेसें । नसै ज्ञान निज फँसै बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेसें ।। ज्ञानी ॥३॥ विषयचाहदवदाहनशै नहिं, बिन निज सुधासिंधुमें पैसें । अब जिनवैन सुने श्रवननतें, मिटै विभाव करूं विधि तैसें ॥ ज्ञानी० ॥ ४॥ ऐसो अवसर कठिन पाय अब, निजहितहेत विलंब करेसें । पछताओ बहु होय सयाने, चेतत दौल छुटो भवभैसें ।। ज्ञानी० ॥५॥
५८. अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायो, ज्यों शुक नभचाल विसरि नलिनी लटकायो॥ अपनी० ॥ टेक ॥ चेतन अविरुद्धशुद्ध, दरा १ पूरण होने और गलन होनेरूप स्वभाववालापुद्गल होता है ।।