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प्रथमभाग । - ५१ म्बर तन छावै । ऐसा०॥ ४॥ आरंभ तज शठ यंत्रमंत्र करि, जनपै पूज्य मनावै । धामवाम तज दासी राखै, वाहिर मढ़ी बनावै
॥ ऐसा०॥ ५॥ नाम धराय जती तपसी मन, : विपयनिमें ललचावै । दौलत सो अनंत भव भटकै, औरनको भटकावै ॥ ऐसा०॥६॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै । ऐसा० ॥ टेक ॥ संशय-विभ्रममोह विवर्जित, स्वपरस्वरूप लखावै । लखं परमातमचेतनको पुनि, कर्मकलंकमिटावै ॥ ऐसा योगी० ॥१॥ भवतनभोगविरक्त होय तन, ना सुभेप बनावै । मोहविकार निवार निजातम,अनुभवमें चित लावै ॥ ऐसा योगी० ॥२॥ वस-थावर-वध त्याग सदा परमादंदशा छिटकावे । रागादिकवश झूठ न भाखै, तृणहु न अदत गहावे ॥ऐसा योगी०॥३॥ वाहिर नारि त्यागि अंतर चिदब्रह्म सुलीन रहावै । परमा१ संसार और देह भोगोसे विरक्त । २ विना दिया।
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