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जैनपदसंग्रह |
विधिठेगन ठगी है। पांचों इंद्रिनके विपयनमें, तेरी बुद्धि लगी है, भया इनका तू चेरा ॥ भाखूं || ३ || तू जगजालविषै बहु उरइयो, अब कर ले सुरझेरा । दौलत नेमिचरनपंकजका, हो तू. भ्रमर सेवेरा, नशै ज्यों दुख भवकेरा || भाखूं ||४||
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ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै, जाको जिनवानी न सुहावै । ऐसा० ॥ टेक ॥ वीतरा गसे देव छोड़कर, भैरव यक्ष मनावै । कल्पलता दयालुता तजि हिंसा इन्द्रायनि वावै || ऐसा ॥ १ ॥ रुचै न गुरु निर्ग्रन्थभेप बहु, परिग्रही गुरु भावै | परंधन परतियको अभिलापै, अशर्ने अशोधित खावै || ऐसा ० || २ || परकी विभव देख है सोगी, परदुख हरख लहावे । धर्महेतु इक दाम न खरचै, उपवन लक्ष बहावै ॥ ऐसा ॥ ३ ॥ जो गृहमें संचय बहु अघ तौ, वनहूमें उठ जावै । अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, वाघ
१ कर्मरूपी ठगोंने । २ शीघ्र ही । ३ वोवै । ४ भोजन । ५ विनाशोधा हुआ । ६ दुःखी । ७ बाग बनानेमें लाखों रुपये ।