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चतुर्थभाग। गुन प्रगट न सूझै । दोऊ केवलि आज यही है, इनहीको मुनि बूझै ॥ कलि० ॥ ५॥ बुद्धि प्रगट कर आप वांचिये, पूजा वंदन कीजै । दरव खरच लिखवाय सुधाय सु, पण्डित जन बहु दीजै ॥ कलि० ॥६॥ पढ़तें सुनतें चरचा करतें, द्वै संदेह जु कोई । आगम माफिक ठीक कर के, देख्यो केवल सोई ॥ कलि. ॥७॥ तुच्छबुद्धि कछु अरथ जानिकै, मनसों विंग उठाये । औधज्ञानि श्रुतज्ञानी मानो, सीमंधर मिलि आये ॥ कलि० ॥ ८॥ यह तो आचारज है सांचो, ये आचारज झूठे । तिनके ग्रंथ पढ़ें नित वर्दै, सरधा ग्रंथ अपूठे ॥ कलि० ॥९॥ सांच झूठ तुम क्यों करि जान्यो, झूट जानि क्यों पूजो। खोट निकाल शुद्ध करि राखो, और वनावो दूजो ॥ कलि० ॥ १० ॥ कौन सहामी वात चलावै, पूछे आनमती तौ । ग्रंथ लिख्यो तुम क्यों नहिं मानौ, ज्वान कहा कहि जीतौ ॥ कलि० ॥ ११ ॥ जैनी जैनग्रंथके निंदक, हुण्डासर्पिनि जोरा । धानत आप जान चुप रहिये, जगमें जीवन थोरा ॥ कलि० ॥ १२ ॥
३२०। कीजे हो भाईयनिसों प्यार ॥ कीजे० ॥ टेक ॥ नारी सुत बहुतरे मिल हैं, मिलें नहीं मा जाये यार ॥ कीजे० ॥ १॥ प्रथम लराई कीजे नाहीं, जो लड़िये