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जैनपदसंग्रह। सक्में दीसै है चिद्रूप ॥ सबमें० ॥ ८॥ वालक वृद्ध तरुन तनमाहि, पंढ नारि नर धोखा नाहि ॥ सवमें. ॥९॥ सोवन वैठन वचन विहार, जतनं लिये आहार निहार ॥ सबमें ॥ १०॥ आयो लैंहिं न न्यौते जाहिं, परघर फासू भोजन खाहिं। सबमें०॥ ११ ॥ पर संगतिसों दुखित अनाद, अव एकाकी अम्रत खाद ॥ सवमें० ॥ १२ ॥ जीव न दीसे है जड़ अंग, राग दोष कीजै किहि संग ॥ सवमें० ॥ १३ ॥ निरमल तीरथ आतमदेव, द्यानत ताको निशिदिन सेव ॥ सबमें ॥१४॥
३१९ । राग-आसावरी जोगिया। , कलिमें ग्रंथ बड़े उपगारी ॥ कलि. ॥ टेक ॥ देव शास्त्र गुरु सम्यक सरधा, तीनों जिनतें धारी॥कलि. ॥१॥तीन वरस वसु मास पंद्र दिन, चौथा काल रहा था। परम पूज्य महावीरखामि तव, शिवपुरराज लहा था ॥ कलि० ॥२॥ केवलि तीन पांच श्रुतिकेवलि, पी गुरुनि विचारी । अंगपूर्व अव हैं न रहेंगे, वात लिखी थिरथारी ॥ कलि० ॥३॥ भविहित कारन धर्मविधारन, आचारजों बनाये । वह तिन तिनकी टीका कीनी, अदभुत अरथ समाये ॥ कलि० ॥४॥ केवल श्रुतकेवलि यहां नाहीं, मनि . १ नपुंसक । २ यत्नपूर्वक । ३ प्राशुक ।