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________________ १२० जैनपदसंग्रह। पिय०॥टेक ॥व्याहन आये पशु छुटकाये, तजि रथ जन पुर गाऊं ॥ पिय० ॥१॥ मैं सिंगारी वे अविकारी, क्यों नभ मुठिय समाऊं ॥ पिय० ॥२॥ धानत जोगनि है विरमाऊं, कृपा करें निज. ठाऊं ॥ पिय० ॥३॥ . . .२३९ । री मा.! नेमि गये किंह ठाऊं ॥री मा० ॥ टेक ॥ दिल मेरा कित हू लगता नहि, ढूंढौ सव पुर गाऊं ॥ रीमा० ॥१॥ भूपण वसन कुसुम न सुहावं, कहा करूं कित.जाऊ॥रीमा०॥२॥ द्यानत कर मैं दर. सन पाऊं, लागि रहौं प्रभु पाऊं ॥रीमा० ॥३॥ . .. २४०। एरी सखी ! नेमिजीको मोहि मिलावो ॥ एरी. ॥टेक ॥ व्याहन आये फिर कित धाये, दूँड़ि खवर किन लावो । एरी० ॥१॥ चोवा चन्दन अतर अरगजा, काहेको देह लगायो॥ एरी० ॥२॥ द्यानत प्रान वसैं पियके ढिग, प्रानके नाथ दिखावो॥एरी०॥३॥ . . . . . . २४१। : मूरतिपर वारीरे नेमि जिनिंद ॥ मूरति० ॥ टेक ॥ छपन कोटि यादवकुलमंडन, खंडन कामनरिंद ॥ मूरति०॥१॥ जाको जस सुरनर सब गावे, ध्या १ ग्राम | २ आकाश | ३ मुट्ठीमें । ४ एक प्रतिमें 'नीमा' और एकमें 'नामा' पाठहै। ... . . . . . .. .. . ... .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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