________________
११२
जैनपदसंग्रह।
२१५। ___ आतम जाना, मैं जाना ज्ञानसरूप ।। आतम० ॥ टेक ॥ पुद्गल धर्म अधर्म गगन जैम, सब जड़ मैं चिद्रूप॥ आतम० ॥१॥ दरव भाव नोकर्म नियारे, न्यारो आप अनूप ।। आतम० ॥२॥ द्यानत पर-परनति कर विनसै, तव सुख विलसै भूप ॥ आतम० ॥३॥
२१६।
__ सांचे चन्द्रप्रभू सुखदाय ॥ सांचे० ॥ टेक ॥ भूमि सेत अम्रतवरषाकरि, चंद नामतें शोभा पाय ॥ सांचे.. ॥१॥ नर वरदाई कौन बड़ाई, पशुगन तुरत किये सुरराय ॥ सांचे० ॥२ ॥ द्यानत चन्द असंखनिके प्रभु, सारेथ नाम जपों मन लाय ॥ सांचे० ॥३॥
- २१७। ए मान ये मन कीजिये भज प्रभु तज सब वात हो। ए मन० ॥टेक॥ मुख दरसत सुख वरसत प्रानी, विधन विमुख है. जात हो ॥ ए मन० ॥१॥ सार निहार यही शुभ गतिमें, छह मत मानै ख्यात हो। ॥ ए मन० ॥२॥ द्यानत जानत खामि नाम धन, जस गावैं उठि प्रात हो॥ ए मन० ॥३॥ . . . . . २१८।.
सोहांदीव ( सोभा देवें?) साधु तेरी बातड़ियां। १ कालद्रव्य । २ यथा नाम तथा गुण ।
विधान॥देव जय भजन
-