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जैनपदसंग्रह । धरि धरि बहु मरि तू, फिरि फिरि जग भमि आया रे। घानत सरधाजुत गहि मुनिव्रत, अमर होय तजि काया रे ॥ भाई०॥८॥
१५६ । राग-काफी। भाई ! कहा देख गरवाना रे ॥ भाई० ॥ टेक ॥ गहि अनन्त भव तैं दुख पायो, सो नहिं जात वखाना रे . ॥ भाई० ॥१॥ माता रुधिर पिताके वीरज, तातै तू उपजाना रे । गरभ वास नवमास सहे दुख, तल सिर पांच उचाना रे ॥ भाई०॥२॥ मात अहार चिगल मुख निगल्यो, सोतू असन गहाना रे। जंती तार सुनार निकालै, सो दुख जनम् सहाना रे ॥ भाई० ॥३॥ आठ पहर तन मलि मलि धोयो, पोप्यो रैन विहाना रे। सो शरीर तेरे संग चल्यो नहि, खिनमें खाक समाना रे ॥ भाई० ॥ ४ ॥ जनमत नारी, वाढत भोजन, समरथ दरव नसाना रे । सो सुत तू अपनो कर जाने, अन्त जलाचे प्राना रे ॥ भाई०॥५॥ देखत चित्त मिलाप हरै धन, मैथुन प्राण पलाना रे। सो नारी. तेरी खै कैलें, भूवें प्रेत प्रमाना रे ॥ भाई०॥६॥पांच चोर तेरे अन्दर पैठे, ते ठाना मित्राना रे । खाय पीय धन ज्ञान लूटके, दोष तेरे सिर ठाना रे॥भाई०॥७॥ व धरम गुरु रतन अमोलक, कर अन्तरं सरधाना रे।