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________________ चतुर्थभाग। जे निज मन वश करि हैं, तिनकों शिवसुख थाई । वार वार कहुं चेत संवेरो, फिर पाछै पछताई ॥ प्राणी०॥८॥ १५५ । राग-काफी। भाई ! ज्ञान विना दुख पाया रे ॥ भाई० ॥ टेक ॥ भव दश आट उखास खासमें, साधारन लपटाया रे॥ भाई० ॥१॥ काल अनन्त यहां तोहि वीते, जव भई मंद कपाया रे । तव तू तिस निगोद सिंधूतै, थावर होय निसारा रे ॥ भाई० ॥ २॥ क्रम क्रम निकस भयो निकलत्रय, सो दुख जात न गाया रे। भूख प्यास परवश सहि पशुगति, वार अनेक विकाया रे ॥ भाई. ॥३॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, पुतरी अगन जलाया रे। सीत तपत दुरगंध रोग दुख, जानें श्रीजिनराया रे ॥ भाई०॥४॥ भ्रमत भ्रमत संसार महावन, कवर देव कहाया रे । लखि परविभौ सह्यौ दुख भारी, मरन समय विललाया रे ॥ भाई ॥५॥ पाप नरक पशु पुन्य सुरग पसि, काल अनन्त गमाया रे। पाप पुन्य जव भये वरावर, तव कहु नरभव पाया रे॥ ॥ भाई० ॥ ६ ॥ नीच भयो फिर गरम खयो फिर, जनमत काल सताया रे । तरुणपनै तू धरम न चेतै, . तन-धन-सुत लौ लाया रे ॥ भाई ॥ ७॥ दरवलिंग १ जल्दी । २ निकला। ६ भाग ४ .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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