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जैनपदसंग्रह । । करि गाई। विष गुन करत संग औषधके, ज्यों वचखाय मिटै वाई ॥ कर० ॥३॥ दोष घटै प्रगटै गुन मनसा, निरमल द्वै तजि चपलाई । द्यानत धन्य धन्य जिनके घट, सतसंगति सरधा आई ॥ कर० ॥४॥: .
- १२८ । राग-धनासरी। . __ जैन नाम भज भाई रे ! ॥ टेक ॥जा दिन तेरा कोई नाहीं, ता दिन नाम सहाई रे॥ जैन० ॥१॥ अगनि नीर खै शत्रु वीर द्वै, महिमा होत सवाई । दारिद जावै धन बहु आवै, जामन नाम दुहाई रे॥जैन०॥ ॥२॥ सोई साध सन्त सोई धन, जिन प्रभुसों लौ लाई.। सोई जती सती सो ताकी, उत्तम जात कहाई रे॥ जैन० ॥३॥ जीव अनेक तरे सुमरनसों, गिनती गनिय न जाई । सोई नाम जपो नित धानत, तजि विकथा दुखदाई रे। जैन० ॥ ४ ॥
. १२९ । राग-गौरी। चेत रे! प्रानी! चेत रे !, तेरी आव है थोरी॥टेक॥ सागरथिति धरि खिर गये, बँधे कालकी डोरी ॥ चेत. ॥१॥ पाप अनेक उपायक, माया वहु जोरी । अन्त समय सँग ना चलै, चलै पापकी बोरी। चेत०॥२॥ मात पिता सुत कामिनी, तू कहत है मोरी। देहकी देह तेरी नहीं जासों, प्रीति है तोरी ॥ चेत० ॥३॥ १ वायुरोग । २ भाई । ३ पोटरी ।