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________________ चतुर्थभाग। सब जग चाहत है विषयनिको, ज्ञानविर्षे अनवन है ॥ सुनो० ॥१॥ राज काज जग घोर तपत है, जूझ मर जहा रन है । सो तो राज हेय करि जानें, जो कोड़ी गाँट न है ।। सुनो० ॥२॥ कुवचन वात तनकसी ताको, सह न सके जग जन है। सिरपर आन चलावै आरे, दोप न करना मन है । सुनो० ॥३॥ ऊपरकी सब थोथी वात, भावकी बातें कम है। धानत शुद्ध भाव है जाके, सो त्रिभुवनमें धन है । सुनो०॥४॥ १२६ । राग-मलार । सुनो जैनी लोगो! ज्ञानको पंथ सुगम है । टेक । टुक आतमके अनुभव करतें, दूर होत सब तम है । सुनो० ॥१॥ तनक ध्यान करि कठिन करम गिरि, चचंल मन उपशम है। मुनो० ॥२॥ द्यानत नमुक राग दोप तज, पास न आवै जम है । सुनो० ॥३॥ १२७ । राग-धनासरी। कर सतसंगति रे भाई ! ॥ टेक ॥ पान परत नरपतकर सो तो, पाननिसों कर असनाई ॥ कर ॥१॥ चंदन पास नीम चन्दन है, काठ चढ़यो लोह तर जाई । पारस परस कुधातु कनक है, बूंद उदधि-पदवी पाई॥ कर०॥ २॥ करई तूंवरि संगतिके फल, मधुर मधुर सुर १ त्यागने योग्य । २ पत्ता पानोंकी (ताम्बूलकी) मित्रतासे राजाक हाथमें पहुंच जाते हैं। ३ लोहा ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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