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________________ चतुर्थभाग़ । ३७ मोह मच्छ अरु काम कच्छतैं, लोभ लहरतें उबारो ॥ हो० ॥ १ ॥ खेद खारजल दुख दावानल, भरम भँवर भय टारो || हो० ॥ २ ॥ द्यानत बार वार यौं भाषै, तू ही तारनहारो ॥ हो० ॥ ३ ॥ ७० | राग - वसन्त । मोहि तारो हो देवाधिदेव, मैं मनवचतनकरि करौं सेव ॥ टेक ॥ तुम दीनदयाल अनाथनाथ, हमहूको राखो आप साथ || मोह० ॥ १ ॥ यह मारवाड़ संसार देश, तुम चरनकलपतरु हर कलेश || मोह० ॥ २ ॥ तुम नाम रसायन जीय पीय, द्यानत अजरामर भव त्रितीय | मोह० ॥ ३ ॥ ७१ । राग-केदारो । रेजिय! क्रोध का करे || टेक || देखकै अविचेकि प्रानी, क्यों विवेक न धेरै ॥ रे जिय० ॥ १ ॥ जिसे जैसी उदय आवे, सो क्रिया आचरे । सहेज तू अपनो विगारे, जाय दुर्गति परै ॥ रे जिय० ॥ २ ॥ होय संगति-गुन सवनिकों, सरब जग उच्चरै । तुम भले कर भले सबको, बुरे लेखि मति जरे ॥ रे जिय० ॥ ३ ॥ वैद्य परविप हर सकत नाहि, आप भखि को मरे । बहु कपाय निगोद: वासा, छिमा द्यानत तरे ॥ रे जिय० ॥४॥ १ इस पदमें दो परी छन्द हैं । २ स्वभाव |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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