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________________ २६ जैनपदसंग्रह । देह । काल अनन्त सहे दुख जानें, ताको तजो अब नेह ॥ घटमें० ॥२॥ ज्ञानावरनादिक जमरूपी, निजतें भिन्न निहार । रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ॥ घटमें० ॥ ३ ॥ तहाँ शुद्ध आतम निरविकलप, खै करि तिसको ध्यान । अलप कालमें घोति नसत हैं, उपजत केवलनान ॥ घटमें०॥४॥ चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त । सम्यकदरसनकी यह महिमा, धानत लह भव अन्त ॥ घटमें० ॥५॥ समझत क्यों नहिं वानी, अज्ञानी जन ॥ टेक ॥ स्यादवाद-अंकित सुखदायक, भापी केवलज्ञानी ॥समझत० ॥१॥जास लखें निरमल पद पाच. कुमति कुगतिकी हानी। उदय भया जिहिमें परगासी. तिहि जानी सरधानी ॥ समझत० ॥२॥ जामें देव धरम गुरु वरने, तीनों मुकतिनिसानी । निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला प्रानी ॥ समझत० : ॥३॥ या जगमाहि तुझे तारनको, कारन नाव वखानी । धानत सो गहिये निहचैसों, हूजे ज्यों शिवथानी ॥ समझत०॥४॥ १ घातिया कर्म ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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