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________________ चतुर्थभाग | २५ हाथ बटेर आई, तजत ताहि गँवार || नहिं० ॥ २ ॥ कबहुँ नरक तिरजंच कबहुँ, कबहुँ सुरगविहार । जगतमहिं चिरकाल भमियो, दुलभ नर अवतार ॥ नहिं० ॥ ३ ॥ पाय अम्रत पाँय धोवै, कहत सुगुरु पुकार । तजो चिपय कपाय द्यानत, ज्यों लहो भवपार ॥ नहिंο || 2 11 ४७ । तू तो समझ समझ रे ! भाई ॥ टेक ॥ निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई ॥ तू तो० ॥ १ ॥ कर मनका ले आसन मास्यो, बाहिज लोक रिझाई | कहा भयो क ध्यान धरेतें, जो मन थिर न रहाई ॥ तू तो ० ॥ २ ॥ मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई । को मान छल लोभ न जीला, कारज कौन सराई ॥ तू तो० ॥ ३ ॥ मन चच काय जोग थिर करकें, त्यागो विपयकपाई । द्यानत मुरग मोख सुखदाई, सदगुरु सीख बताई ॥ तू. दो० ० ॥ ४ ॥ ४८ । घटमें परमातम ध्याये हो, परम धरम धनहेत । ममता बुद्धि निवारिये हो, टारिये भरम निकेत । घटमें० ॥ १ ॥ प्रथमहिं अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय १ मालाके गुरिया |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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