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________________ जैनपदसंग्रह रतन विणजै, परखको नहिं सूल। करत इहि विधि वणिज भूधर, विनस जै है मूल ॥ ऐसी० ॥ ४॥ . अब पूरीकर नींदड़ी, सुन जीया रे! चि. रकाल तू सोया ॥ सुन०॥ टेक ॥ माया मैली रातमें, केता काल विगोया ॥ अव० ॥१॥धर्म न भूल अयान रे! विषयावश बाला । सार सुधारस छोड़के, पीवै जहर पियाला॥ अवा२॥ मानुष भवकी पैठमैं, जग विणजी आया। चतुर कमाई कर चले, मूढौं मूल गुमाया ॥ अव० ॥३॥ तिसना तज़: तप जिन किया, तिन बहः हित जोया । भोगमगन शठ जे रहे, तिन सरवस खोया ॥ अब० ॥ ४॥ काम विथापीड़ित जिया, भोगहि. भले जानैं । . खाज खुजावत अंगमें, रोगी सुख मानें ।। अव० ॥५॥राग उरंगनी जोरतें, जग डसिया भाई! सब जिय गाफिल हो रहे, मोह लहर चढ़ाई ॥ .१ शहूर. २ खोया. ३ सर्पनी.
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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