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________________ तृतीयभाग : कंचन घरे, छीरसागर भरें नीर निरमल वरन। सहस अर आठ गिन एक ही वार जिन, सीस सुरईशके करन लागे ढरन । आज०॥२॥नचत सुरसुन्दरी रहस रससौं भरी, गीत गावे अरी देहिं ताली करन । देव दुंदभि बजे वीन चंसी सजे, एकसी परत आनंद घनकी भरन । आज०॥३॥इन्द्र हर्पित हिये नेत्र अंजुल किये, तृपति होत न पिये रूपअम्रतझरन । दास मृधर भने सुदिन देखें बनें, कहि थके लोक लख जीभ न सके वरन । आज०॥४॥ ऐसी समझके सिर धूल ॥ ऐसी०॥. टेक ॥ धरम उपजन हेत हिंसा, आचरै अघमूल ।। ऐसी० ॥ १॥ छके मत-मद-पान पीके, रहे सनमें फूल । आम चाखन चहें भोंदू, बोय पेड़ बॅथल ॥ ऐसी० ॥२॥ देव रागी लालची गुरु, सेय सुखहित भूल । धर्म नेगकी परख नाही, भ्रम हिंडोले झुल ॥ ऐसी०॥३॥ लाभकारन - १ घडे-कलश. २ रतकी.. . .. ....
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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