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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
का मन रुककर उसकी स्वाभाविकता पर सन्देह कर उठता है ।
त्यागपत्र में जब मृणाल पति के घर से निकल कर एक कोयले वाले को ग्रहण कर लेती है तो शायद अनेक पाठकों की भांति मेरा मन भी पूछ उठता हैक्या एक शिक्षित मध्य-वर्गीय बाला के लिये यह स्वाभाविक है ? क्या वह अपने पैरों पर नहीं खड़ी हो सकती थी, जैसा कि उसने बाद में कुछ दिन के लिये किया ? और अगर उसे किसी पुरुष के सहारे की ही अावश्यकता थी तो क्या कोयले वाले की अपेक्षा अच्छे चुनाव की गुन्जाइश नहीं थी ? यह सन्देह एक बार ज़रूर उठता है । लेकिन इसका समाधान प्राप्त कर लेना भी समझदार पाठक के लिये असम्भव नहीं है। मृणाल के व्यक्तित्व में बुद्धि और संवेदना की प्रखरता के कारण एक असाधारणता है। अतएव एक साधारण मध्यवर्ग की युवती को दृष्टि में रखकर उसके व्यवहार की समीक्षा करना ग़लत होगा । जीवन में नकार पाकर उसका स्वभाव से ही संवेदनाशील मन अतिशय संवेदनाशील हो गया है । बस, उस अाखिरी धक्के से वह एक बार कुछ समय के लिये समग्रतः डूब जाता है। ऐसी स्थिति में चनाव का प्रश्न ही नहीं उठताउस पर अहसान करने वाला पहला पुरुष बड़ी आसानी से कुछ समय के लिये तो उसके जीवन में प्रवेश कर ही सकता है। बड़े-बड़े करोड़पतियों की स्त्रियां फक़ीरों के साथ भाग जाती हैं ! और मृणाल के साथ तो यह स्थिति मानसिक विवशता के अतिरिक्त चैलेन्ज का परिणाम भी हो सकती है !! शरत् के पाठक को इस प्रकार के पात्रों को ग्रहण करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
नारी में भी एक स्थल सन्देहप्रद है। ज्यों ही जमना की कहानी अन्तिम स्थिति पर पहँचती है, हल्ली का एक साथी हीरा, सिर्फ हल्ली से बदला लेने के लिये, जमुना के पति को एक ऐसा पत्र लिख देता है कि सारा खेल बिगड़ जाता है । यह पत्र इतना कौशलपूर्ण है कि इसको हीरा-जैसा छोटा बालक तभी लिख सकता था जब सियारामशरण जी इबारत बोलते गये होते । माना कि यह घटना जमुना के व्यक्तित्व-विकास में प्रत्यक्ष रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है, परन्तु कथा-विकास में इसका महत्त्व असंदिग्ध है । इसकी त्रुटि कथा-शिल्प की एक त्रुटि है। इसका समाधान मुझे बहुत सोचने पर भी नहीं मिल पाया ।
यहीं पाकर जैनेन्द्रजी और सियारामशरणजी की शैली का एक और अन्तर स्पष्ट हो जाता है- जैनेन्द्रजी अपनी शैली के प्रति जागरूक हैं; प्रभाव को तीव्र करने के लिये उन्होंने सचेत होकर कोशिश की है । उन्होंने इसीलिये स वेदना के मापक रूप में सर एम० दयाल की सृष्टि की है । वह प्रभाव को तीव्र करते जाते हैं और पारा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता जाता है । अन्त में मृणाल की मृत्यु पर, जैसे ताप के सीमा पार कर जाने से यन्त्र टूट जाता है, सर एम० दयाल जजी से स्तीफ़ा दे देते