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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व थी। वह न खुलती थी, न घुलती थी । बल्कि, कुछ करो, वह और उलझती और कसती ही जाती थी। जी होता था, कुछ होना चाहिये, कुछ करना चाहिये । कहीं कुछ गड़बड़ है । कहीं क्यों, सब गड़बड़ ही गड़बड़ है । सृष्टि ग़लत है, समाज ग़लत है, जीवन ही हमारा ग़लत है । सारा चक्कर यह ऊटपटाँग है। इसमें तर्क नहीं है, संगति नहीं है, कुछ नहीं है । इससे जरूर कुछ होना होगा, जरूर कुछ करना होगा। पर क्या-या ? वह क्या है, जो भवितव्य है और जो कर्तव्य है ?'
___अथाह सागर की भाँति जीवन हमारे सामने हिलोर मार रहा है । उसका प्रारपार कुछ नहीं सूझता : 'समंदर है। अपनी नन्हीं-नन्हीं काग़ज़ की डोंगी लिये उसके किनारे खेलने के लिये आ उतरते हैं । पर किनारे ही कुशल हैं, आगे थाह नहीं है।' ऐसी अधिकतर हमारी मनोवृत्ति है । जैनेन्द्र आगे बढ़ गये हैं; किन्तु पृथ्वी उनके पैरों के नीचे से भी निकल रही है । 'उस सागर की लहरों का अन्त कहाँ है ? कूल कहाँ है ? पार कहाँ है ? कहीं पार नहीं है, कहीं किनारा नहीं है । आँख के ठहरने को कोई सहारा नहीं है । क्षितिज का छोर है, जहाँ पासमान समंदर से आ मिला है. वहाँ नीला अँधियारा दीखता है । पर छोर वहां भी नहीं है । वहाँ छोर तो हमारी अपनी ही दृष्टि का है, अन्यथा वहाँ भी वैसी ही अकूल विस्तीर्णता है।'
जैनेन्द्र की भाषा के अनेक गुण इस अवतरण में हैं । सादगी, गान्धी के 'नवजीवन' का स्मरण दिलाने वाली; काव्य तक उठने की क्षमता; एक खटकने वाली कृत्रिमता-जंसी कोई अच्छा बड़ा मनुष्य तुतलाने का प्रयास करता हो ! 'किन्तै' 'ठेरा' 'समंदर' हमारे कान को नहीं सुहाते । 'परख' से 'त्याग-पत्र' तक जैनेन्द्र की शंली खूब परिमार्जित हो चुकी है। वह अधिक प्रवाहमयी है और प्रौढ़ावस्था में पदार्पण कर चुकी है । 'परख' में बहुधा काव्य का आनन्द उनकी भापा हमें देती है; किन्तु यह स्वाभाविक है कि कथावस्तु में अधिक प्रवाह आने पर गद्य-काव्य की कुछ हानि हो।
जैनेन्द्र कलाकार अपनी रचनात्मक शक्तियों पर आज पूर्ण रूप से अधिकारी हैं। 'परख', 'सनीता' और 'त्याग-पत्र' का मनन कम से कम यह हमें बताता है । भविष्य में हिन्दी उनसे बहुत कुछ आशा कर सकती है । मध्याह्न में पहुँच कर यह नक्षत्र ज्योति से हमारा जग भर देगा ।*
('नया हिन्दी साहित्य' से साभार)
*प्रोफेसर प्रकाशचन्द्र गुप्त की आज से २२-२३ वर्ष पूर्व की गई यह भविष्यवाणी सर्वथा सत्य सिद्ध हो चुकी है |-सम्पादक