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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व तब भी यही कहता था और आज भी । लेखक ने यह कैसे लिखी होगी । जाह्नवी उसकी क्या लगती होगी। जाह्नवी को तो मैं जानता हूँ। शायद और भी बहुत से लोग बहुत-सी जाह्नवियों को जानते होंगे । जब भी कभी सोचता हूँ मन अनायास उदास हो पाता है—हुँ.. कागा' । हुँ। 'तुमने मेरा कौन-सा साहित्य पढ़ा है ?' 'जी जाह्नवी पढ़ी है।' "और ?" "जी जाह्नवी !" 'और ।' "जी जाह्नवी।" मैं चौंक पड़ता हूँ---"जी नहीं, नहीं, कालेज के दिनों बहुत सी किताबें पढ़ी थीं-'त्याग-पत्र था ।' वह, बीते दिन वाला 'व्यतीत' था। वह कट्टो ! जी नहीं 'परख' और तिन्नी वाली-जी।" "तुम करते क्या हो आजकल ?" "बस, कुछ नहीं । जाह्नवी लिखता हूँ। जी नहीं । जी नहीं। कहानियां लिखता हूँ -। लिखता तो हूँ, पर समझ में नहीं पाता कैसी लिखता हूँ। समभि.ए बन्द अंधेरे कमरे में चक्कर काटता हूँ।" "हाँ, वस्तुतः ऐसा ही है ।' दार्शनिक भाषा में उत्तर आता है- “समझ न पाना भी एक तरह से पाना ही है।" पीले सूरज वाले जाड़ों के ठण्ड दिन हैं । नीला कमरा नीले परदों से घिरा है । फर्श पर जूट की नीली बिछावन है। नीला सोफा, तख्त पर नीली चादर और फुके बैलून की तरह नीला तकिया है--नीले अजगर की तरह लेटा । यह दरियागंज के किनारे ऋषि-भवन है। बाहर फैज़ बाज़ार की दोहरी सड़क पर मोटर-कारों की कतारें भागी जा रही हैं। घर-घर-घर धड़-धड़ करती फटफटियों की आवाज, खिड़की की राह बेरहमी से भीतर बैठकर कान के पर्दो को बेध रही हैं । सामने पाँवों के पास नीली अलमारी के नीचे एक गोल-गोल नीला ग्लोब रखा है। धरती की प्रतिमूर्ति है । लोग कहते हैं धरती घूमती रहती है, दिन रात चौबीसों घण्टे । पर एक ग्लोव है । घूमता भी नहीं । उदास मुंह लटकाए । ऊपर धूल की हल्की तह जमी है । ग्लोब भी साढे बाईस अंश का तिरछा कोण बनाकर घूमता तो क्या होता । ___मैं सामने की ओर देखता हूँ।-दो-तीन और स्वनामधन्य साहित्य-सृष्टा बैठे हैं । बड़े-बड़े मोटे हैं । नहीं, ये साहित्यकार नहीं । साहित्यकार तो मुसीबत में रहते हैं । दुबले-पतले होते हैं । मैं जिज्ञासु निरीह बालक की तरह उस बर्फ से घिरी नीली झील की थाह लेने .
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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