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जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २५१ कल्याणी के मन का बोझ उसके आत्मपीड़न का बोझ है। मन को वह खोलती है। मन ही यत्र-तत्र उसे अनजाने में खोल देता है । हँसी की साड़ी पहनकर उसकी पीड़ा सृष्टि की आधारभूत पीड़ा बन गई है । कल्याणी कहती है-- 'सिर का बोझ संभल भी जाए, पर मन का यह बोझ कब तक सहारा जा सकता है ! और मैं किसी से उस मन को खोल नहीं सकती। .......... 'अपना बोझ बांट भी तो नहीं सकती। समझती हूँ कि बाँटने से चित्त हल्का हो जाता होगा। पर और भी तो अपने को लेकर व्यस्त हैं । सबको संभालने को अपनापन है।"
सभी अपने-अपने अस्तित्व नीर में दुबके हुए हैं । अपने को लेकर व्यस्त, सँभालने को अपनापन । वह चित्र को बाँट भी नहीं पाती। चित्र-ग्रंथियों का दिशानिरूपणा वह नहीं करती और भाग्य को सर्वोपरि मान लेती है।
कल्याणी-दर्शन के अनुसार, "सब भाग्य है, और क्या !" वह भाग्य से शायद इसलिये नाराज नहीं ! वह तो अपने से ही नाराज है । कल्याणी की कहनी में उसकी अनकहनी का समुद्र है । निजत्व-रक्षा के जीवन-पर्यन्त ज्वर के कारण वह अपने पति से भी अपने को खोल नहीं पाती। पति के कारण उसके प्रात्म-पीड़न को बल मिला है, किंतु सीधे रूप से नहीं ।।
प्रार्थिक-अवलम्बन-स्वातंत्र्य के बावजूद भी पति के प्रति जड़ता के संस्कार भारतीय मर्यादा और स्त्रीत्व के नाम पर वह पालित करती रही है । वह कछ-कीकुछ समझी जाती रही है, पति के द्वारा और अन्यों के द्वारा । किंतु, यह कल्याणी. सुख का मार्ग नहीं है।
कल्याणी में पत्नीत्व और स्त्री के निजत्व का अस्तित्त्व-संघर्ष है।
पैसा क्या है ? "वह जगन्नाथ जी का है, जो जगत भर के हैं। उनका प्रतिनिधि बन कर ही कोई धन का स्वामी हो सकता है ('कल्याणी')" और भी "ईश्वर दीनानाथ हैं । इससे जो दीनों के हित में किया जाए, ऐसे किसी खर्च में तुम मेरा हाथ नहीं रोक सकोगे। उसके सेवक की हैसियत से अपने लिए अधिक खर्च नहीं करोगे।"
विनोबा जी के अनुसार भी, 'सबै भूमि गोपाल की ।' विनोबा जी कल्याणी के पूंजी-उत्सर्ग से अवश्य सहमत होंगे।
जैनेन्द्र को एक गांधीवादी लेखक के रूप में कुछ लोगों ने घोषित कर दिया है। सच कहा जाय तो जैनेन्द्र गांधीवादी नहीं हैं। 'कल्याणी' में गांधीवाद के चिह्न मिल जाते हैं । जैनेन्द्र के अन्य चिह्न मिल जाते हैं। जैनेन्द्र के अन्य उपन्यासों में गांधीवाद नहीं है। जैनेन्द्र को गांधीवाद का पोषक नहीं माना जा सकता। गांधी