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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
मालोचक न होकर कहानी - उपन्यासकार हैं । यद्यपि उन्होंने निबन्ध-साहित्य की रचना भी की है, तथापि उसमें सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक निबन्ध अधिक हैं, साहित्यिक कम । इसी कारण उन्होंने साहित्य सिद्धान्तों के सम्बन्ध में विस्तृत एवं व्यवस्थित रूप से विचार नहीं किया है। फिर भी, प्रकीर्ण रूप से मिलने वाली विचारधारा को क्रमबद्ध रूप में संग्रथित करके जैनेन्द्र जी के तद्विषयक विचारों से अवगत अवश्य हुआ जा सकता है । जैनेन्द्र जी के इन विचारों का निजी महत्त्व है । उन्होंने आनुषंगिक रूप में जो कुछ लिखा है, उसका अनुशीलन भी कम उपादेय नहीं है ।
(१) साहित्य का प्रतिपाद्य
जैनेन्द्र जी हिन्दी के दार्शनिक साहित्यकार है । जैन धर्म के अनुयायी होने के कारण वे अहिंसावादी हैं । गांधीवाद का भी उन पर व्यापक प्रभाव है । इस प्रकार करुणा एवं अहिंसामूलक दर्शन मानने के कारण वे मानव मात्र की सदवृत्तियों को जाग्रत करने वाले साहित्य स्रष्टा हैं । साहित्य में भी उन्होंने इन्हीं सद्वृत्तियों पर बल देने का प्रयास किया है। वस्तुतः करुणा, दया, क्षमा प्रादि मनोभाव किसी व्यक्ति अथवा युग - विशेष की सम्पत्ति न होकर जीवन के शाश्वत मूल्य हैं । अतः जैनेन्द्र जी की दृष्टि में इन उदात्त एवं स्थायी भावों का प्रतिपादन करने वाला साहित्य ही श्रेष्ठ है - "जो साहित्य जितना ही उन भावनाओं को व्यक्त करता है जो सब देश-काल के मनुष्यों में एक समान हैं, वह उतना ही चिर स्थायी है । ऐसा वही कर सकता है, जिसने अपना ग्रहं समष्टि में खो दिया है ।" इस ग्रहं भावना के समाप्त हो जाने को ही जैनेन्द्र जी ने जीवन की सत्यता माना है । उनके अनुसार कवि अथवा साहित्यकार ग्रह-शून्य होकर ही सत्य को " हम मनुष्य-समाज की सच्ची सेवा स्वयं सच्चा मनुष्य बन कर कर सकते | और श्रहं - शून्य हो जाने से बड़ी सत्यता क्या है ? कवि भी स्वयं एकाकी ( अहं - शून्य ) होता है, सम्प्रदाय से विहीन होता है ।'
वारणी प्रदान करता है
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जैनेन्द्र जी साहित्य को जीवन की व्याख्या मान कर चले हैं। जीवन से दूर रह कर केवल प्रादर्श चित्रों का निर्मारण उन्हें अभिप्रेत नहीं रहा । साहित्य को समाज श्रौर जीवन का प्रतिबिम्ब मानने वाले विद्वानों से पूर्णतः महमत होते हुये निभ्रान्त शब्दों में यह प्रतिपादित किया है कि, "नहीं, सब साहित्य नहीं है (मनुष्य) धीमे-धीमे भाषा का महत्त्व भूलने लगा । जो आत्म-दान का साधन था, वह ग्रात्मवंचना का वाहन बना । व्यक्ति उसमें मानव से अधिक अपना अहंकार
उन्होंने
• वह्
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१. 'स्थायी और उच्च साहित्य' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रय, पृ० ३३६ ) २. 'साहित्य की सचाई' शीर्षक लेख (साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ७०)