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जैनेन्द्र के उपन्यास
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उसी तर्क के अनुसार जैनेन्द्र शरत् से अधिक गहराई तक जाने वाले कलाकार हैं ।
बहुत कुछ समानता वाले दो चरित्रों को लीजिये । 'श्रीकान्त' की राजलक्ष्मी और 'त्याग पत्र' की मृणाल - दोनों ही सामाजिक दृष्टि से पतित हैं । लेकिन राजलक्ष्मी को पतित होकर भी जो सुख और अधिकार प्राप्त हैं, वह मृणाल को गृहिणी होकर भी नहीं । मृणाल गृहिणी होकर भी लांछित है, राजलक्ष्मी पतित होकर भी प्रिय का प्रेमपात्र । राजलक्ष्मी बचपन के साथी को पाकर वेश्यावृत्ति से मुक्त होती है, मृणाल अपने बचपन की बात अपने पति से कहकर ताड़न पाती है । लेकिन मूल में एक ही बात है । जिस ईमानदारी के कारण राजलक्ष्मी सभी कुछ पाती है, उसी के कारण मृणाल सब तरह के दुःख उठाती है । तो क्या, जीवन में-- दाम्पत्य जीवन में भी - ईमानदारी अपराध है ? जैनेन्द्र के सामने यह नैतिक समस्या है । जैनेन्द्र इसे नैतिक स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न करते हैं । शरत् इसी को सामाजिक पार्श्वभूमि में देखते हैं ।
इस कथन का एक जबरदस्त प्रमारण यह है कि जैनेन्द्र की नारी की जागरूकता और शक्ति शरत् की नारी में नहीं है । शरत् की नारी निरीह है, अबला है; इसीलिये वह कुछ कहने - करने से लाचार है - इसीलिये वह निरुद्देश्य भीतर ही भीतर घुलती रहती है । लेकिन जैनेन्द्र की नारी में शक्ति भी है और वह उस शक्ति से परिचित भी है । नैतिकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया - स्वरूप वह अनैतिक भी हो सकती थी, जैसा मृणाल ने किया; पर यह समस्या का समाधान नहीं है; क्योंकि इससे कुछ भी रचनात्मक कार्य संभव नहीं है । दूसरी ओर रचनात्मक दृष्टि लेकर चलने वाली सुनीता सब कुछ सहती जाती है, तथाकथित अश्लील ग्राचरण भी करती है । पर साथ ही साथ अपने प्रतिपक्षी को किसी न किसी तरह यह संकेत करना भी नहीं भूलती कि वह गलती कर रहा है और इस प्रकार उसकी सोई मनुष्यता को जगाने में सफल होती है । जैनेन्द्र की नारी कर्त्तव्य किये जाती है और कर्त्तव्य पालन में ही एक रोज समाप्त हो जाती है । तब, कहाँ है जैनेन्द्र पर शरत् का प्रभाव ? जैनेन्द्र की यह मानवीय श्राधार से युक्त मनोवैज्ञानिक नैतिकता तो गांधी जी की देन है, जिसे उनके स्वानुभूत अनुभवों ने तीव्रता दी है । तो क्या, कला के क्षेत्र में जैनेन्द्र शरत् के ऋणी हैं ? अवश्य ही कला के क्षेत्र में जैनेन्द्र ने शरत् से कुछ लिया है । कला के क्षेत्र का यह ऋण मनोविश्लेषणात्मक चित्ररण का नहीं ( यह जैनेन्द्र की एकदम अपनी चीज है), बल्कि कथन के अनायासपन का है । कथन का यह अनायासपन शरत् की उपन्यास- कला की सबसे बड़ी विशेषता है । कला का यह अनायासपन स्वाभाविकता से भिन्न वस्तु है । स्वाभाविकता का सम्बन्ध वस्तु से है, अनायासपन का अभिव्यक्ति से । 'चरित्रहीन' और 'श्रीकान्त' जैसे लम्बे उपन्यासों में भी शरत् इस सहज भाव से कहते हैं, मानों सब कुछ अनायास ही कहा जा रहा है, निर्माण-कौशल का तनिक भी प्रयास नहीं मिलता ।
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