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प्रिय मिलिन्द जी,
आपने जैनेन्द्र पर पुस्तक तैयार की है और आज्ञा हुई है कि मैं भी कुछ कहूँ । क्या कहूँ ? लेखक मैं किसी विचार या चुनाव से नहीं बना । श्रसल में जिस में किया धरा जाता है उस दुनिया के मैं सर्वथा प्रयोग्य सिद्ध हो चुका था । इस तरह कर्म श्रौर घटना के जगत् पर मेरी कोई पकड़ नहीं थी । अब तक भी वैसी पकड़ हो पाई है, इसमें सन्देह है। काम का जो प्रादमी नहीं होगा, उसके भाग्य में शायद यही है कि वह ख्याल का रह जाये । मेरे साथ ऐसा ही संयोग घटित हुआ । लिखना किसी जानकारी में से नहीं प्रारंभ हुआ, बल्कि खाम ख्याली में से जबरदस्ती शुरू हो बैठा। हिन्दी साहित्य में मेरा प्रवेश अनधिकृत और सर्वथा सांयोगिक था । मुझे खुद इसकी कल्पना भी न थी और प्रारम्भ श्रा गया तब भी पता न था । कुछ ऐसा लगता है कि त्रुटि ही प्रागे जाकर मेरी विशेषता मानी जाने लगी । कार्यजगत् में जो अनधिकार था, शायद कारण जगत् में उतरने पर वही अधिकार समभा जाने लगा । समाज हटकर व्यक्ति श्रौर भौतिक हटकर मानसिक यदि मेरे लिखने में अधिक श्राया हो तो इसका कारण मेरी यही असमर्थता थी । बीच में दिन श्राये कि लम्बे काल तक कुछ नहीं भी लिखा । यानी अपनी लेखनी के प्रति मेरा ध्यान पर्याप्त नहीं रहा । उस रूप में किसी दायित्व को भी मैंने अपने ऊपर अनुभव नही किया है। परिणाम उसका इष्टानिष्ट जो भी हुआ हो, लेकिन ऐसा लगता है। कि जिस नियति में बंधा था उससे अन्यथा और अनंत में कुछ कर नहीं सकता । श्राप के प्रति मैं और क्या कह सकता हूँ ? इतना ही है कि जिसने अपने लेख में जो भी कहा हो, अपनी दृष्टि के श्राधार पर ही कहा होगा । श्रेय भी दिया जा सकता है, उसी भाँति प्रश्रेय भी दिया जा सकता है। और वह सब ही सी है । लेकिन श्रापने यह कष्ट क्यों उठाया और लिखने वालों ने लिखने में समय क्यों गँवाया, मैं ठीक समझ पाता नहीं हूँ । इसलिए यह भी पता नहीं कि मुझे अपने को उस सबके लिए कृतज मानना चाहिए या क्या ? जो हो श्राप अपने प्रयत्न में जिस मात्रा तक सफल हो सके हैं, उस तक श्राप सन्तुष्ट भी होंगे और अपनी ओर देखते हुए मैं आपके सन्तोष पर ईर्ष्या अवश्य कर सकता हूँ ।
१८-१२-६२
आपका सस्नेह, जैनेन्द्र कुमार ।