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________________ हटा कर उपादानोपादेयभाव पर दृष्टि रखना श्रेयस्कर है, तो इस विषय मे मेरा कहना यह है कि कहा पर किस रूप से कैसा कार्यकारणभाव बना हुआ है मात्र इसका ही यहा पर निर्णय करना है। हेय और उपादेय का प्रश्न इससे अलग है जिस पर आगे विचार किया जायगा । इस विषय मे यहा पर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता ह कि निमित्ताश्रित कार्यकारणभाव से दृष्टि हटाने का अर्थ यही है कि निमित्त प्रधान कार्यों की तरफ से हमे मुख मोडने का प्रयत्न करना चाहिये। इसका यह अर्थ कदापि नही है कि यदि हम पाप करते है तो वह स्वभावत' ( अपने आप ) होता है, यदि हम पुण्य करते है तो वह भी स्वभावत (अपने आप) होता है और यदि हम पूण्य तथा पाप से निवृत्त होते है तो वह भी स्वभावत (अपने आप) होता है। वास्तविक बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वाश्रित बनने के लिये पाप प्रवृति से हटने का और पुण्य प्रवृत्ति करने का प्रयत्न करना चाहिये और फिर पुण्य प्रवृत्ति मे न रम कर अपनी स्वाश्रित प्रवृत्ति मे आना चाहिये। केवल इस मान्यता से काम चलने वाला नहीं है कि निमित्त कुछ नही करता जो कुछ होता है वह उपादान के केवल अपने ही बल पर होता है, क्योकि जब तक हमारे निमित्ताश्रित कार्य हो रहे है तब तक उनकी निमित्ताश्रितता का लोप कौन कर सकता है ? पं० फूलचन्द्रजी का अपने अभिमत को पुष्ट करने में एक प्रयास समयसार मे निम्नलिखित गाथा पायी जाती हैअण्णदवियेण अण्णदग्वियस्स णो कोरदे गुण विधादो। तह्मा दु सव्वदव्वा उप्पज्जते सहावेण ।। ३७७।।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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