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________________ (२) अन्य से अन्य की उत्पत्ति के प्रसंग में परत सिद्धत्वे स्यादनवस्था लक्षणो महान् दोषः । सोऽपि पर परतः स्यादन्यस्मादिति यतश्च सोऽपि परः॥१२॥ ___ अर्थ-वस्तु को अपने अस्तित्व मे आत्म-निर्भर नहीं मानने से अन्य से अन्य की उत्पत्ति का प्रसग उपस्थित हो जाने पर अनवस्था नाम का महान दोष हो जायगा। अर्थात् जव एक वस्तु का अस्तित्व दूसरी वस्तु पर निर्भर होगा तो स्वत. ही उस दूसरी वस्तु के अस्तित्व को तीसरी वस्तु पर निर्भर मानना होगा। इस तरह प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के लिये अपनायी गयी परावलम्बन की इस धारा का कही भी पहुँचने पर अन्त नही होगा । इसका परिणाम यह होगा कि कारणभूत वस्तु के अभाव मे कार्यभूत वस्तु का अभाव हो जाने पर सम्पूर्ण वस्तुओ का अभाव हो जायगा । (३), वस्तु को युतसिद्ध मानने के प्रसंग में युतसिद्धत्वेऽप्येव गुणगुणिनो स्यात्पृथक् प्रदेशत्वम् । उभयोरात्मसमत्वाल्लक्षण भेदः कथ तयोर्भवति ॥१२॥ अर्थ-वस्तु को स्वरूप के साथ तदात्मक नही मानने से उसमे युतसिद्धता अर्थात् गुण और गुणी दोनो के मेल से वस्तु . की उत्पत्ति का प्रसग उपस्थित हो जाने पर गुण और गुणी दोनो को पृथक्-पृथक् प्रदेशवत्ता स्वीकार करनी होगी इस तरह दोनो मे समानता आ जाने से गुण गुणी के आश्रित है और गुणो गुणो का आश्रय है यह लक्षणभेद गुण और गुणो मे कैसे सम्भव होगा?
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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