SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिनिमित्त परसग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५ || ” यहा पर प्रथम कलश पद्य में आचार्य श्री ने यह प्रश्न प्रस्तुत किया है कि आत्मा की जिन रागादि परिणतियो को कर्मबन्ध का कारण माना गया है वे जब आत्मा के स्वत सिद्ध निजस्वरूप चैतन्य तेज से पृथक् हैं तो उनकी उत्पत्ति मे क्या आत्मा स्वय निमित्त है अथवा कोई अन्य वस्तु उसमे निमित्त होती है ? इस प्रश्न का उत्तर दूसरे कलश पद्य में यह दिया गया है कि सूर्यकान्तमणि की तरह आत्मा भी अपने अन्दर रागादिरूप परिणति की उत्पत्ति मे स्वय निमित्त नही होता है किन्तु उसमे परवस्तुभूत रागादि पुद्गल कर्मों का आत्मा के साथ सशरूप सयोग ही निमित्त होता है क्योकि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है । इससे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि सूयकान्तमणि अथवा आत्मा की तरह प्रत्येक वस्तु अपनी किन्ही - किन्ही पर्यायो की उत्पत्ति मे अन्य वस्तुभूत निमित्तो की स्वभावत अपेक्षा रखती है। इसका फलितार्थ यह है कि प्रत्येक वस्तु मे स्वसापेक्ष अर्थात् परनिरपेक्ष परिणमनो की तरह स्वपरसापेक्ष अर्थात् परसापेक्ष परिणमन भी उत्पन्न हुआ करते हैं | नियमसार मे आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने आत्मा के स्वपरसापेक्ष परिणमनो का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है । "पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो !" ( गा० १४ का उत्त० )
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy