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________________ प० जी से मतभेद रखने वालो का कहना है कि प० जी की उक्त मान्यता सही नही है क्योकि प्रत्येक वस्तु मे परिणमन दो प्रकार से उत्पन्न हुआ करते है । उनमे से एक परिणमन तो वह है जिसका विकास केवल स्व ( उपादान) की अपनी योग्यता के वल पर ही हुआ करता है और दूसरा परिणमन वह है जिसका विकास स्व ( उपादान ) और पर ( निमित्त ) दोनों के बल पर ही हुआ करता है । केवल स्व ( उपादान ) के वल पर होने वाले परिणमन को तो स्वसापेक्ष (स्वप्रत्यय) परिणमन और स्व (उपादान) तथा पर (निमित्त) दोनो के बल पर होने वाले परिणमन को स्वपरसापेक्ष (स्वपरप्रत्यय) परिणमन कहते है । स्वसापेक्ष परिणमन का अपरनाम परनिरपेक्ष परिणमन भी है और स्वपरसापेक्ष परिणमन का अपरनाम परसापेक्ष परिणमन भी है । इस प्रकार जो परिणमन अपनी उत्पत्ति मे स्वपरसापेक्ष अर्थात् उपादान के साथ निमित्त की भी अपेक्षा रखते हैं उनकी उत्पत्ति के प्रति उपादान के बल के साथ-साथ निमित्तो के बल को भी स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है | तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार वस्तु मे यदि विवक्षित रूप से परिणमित होने की योग्यता नही है तो लाखो निमित्त मिल कर भी उसमे उस परिणमन को उत्पन्न नही कर सकते है । उसी प्रकार विवक्षितरूप से परिणमित होने की योग्यता सपन्न वस्तु मे उस रूप परिणमित होने के लिये यदि स्वभावत. निमित्तो की अपेक्षा अपेक्षित हो तो जब तक निमित्तो का सहयोग उसे प्राप्त नही होगा तब तक वह वस्तु केवल अपनो परिणमित होने की योग्यता के बल पर कदापि उस रूप परिणमित नही होगी । इस विषय को समझने के लिये समयसार aarधिकार की निम्नलिखित गाथाओ पर ध्यान देना चाहिये ।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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