________________
कार्यकारणभाव पर विचार करते समय निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध को मान्यता दी है। इन सब बातो के आधार पर इतना निष्कर्ष तो निकल ही आता है कि कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त नाम की वस्तु का अस्तित्व विवाद का विषय नहीं है किन्तु विवाद इस बात का है कि कार्य के प्रति निमित्तो की क्या कुछ सार्थकता है अथवा वे वहा पर सर्वथा अकिचित्कर ही बने रहते है ?
इस प्रश्न पर यदि गभीरतापूर्वक ध्यान दिया जाय तो मालूम होगा कि यह बहुत ही महत्व का प्रश्न है क्योकि इसके समाधान से यदि निमित्तो की कार्य के प्रति अकिंचित्करता सिद्ध होती है तो जैनतत्त्वमीमासा की स्थिति अत्यन्त सुदृढ हो जाती है और उसमे प्रतिपादित सभी विषय निर्विवाद सिद्ध हो जाते है । यदि उक्त प्रश्न के समाधान स्वरूप निमित्तो की कार्य के प्रति सार्थकता सिद्ध होती है तो फिर जैनतत्त्वमीमासा का समूचा आधार ही समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि मैंने सर्वप्रथम कार्योत्पत्ति मे निमित्तो की सार्थकता के विषय मे ही विचार करने का निर्णय किया है।
मैं ऊपर बतला आया हूँ कि प० फूलचन्द्रजी और उनसे मतभेद रखने वालो के मध्य प्रकृत विपय मे मत्तभेद इस बात का है कि प० जी कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्तो की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी कार्य की उत्पत्ति को केवल उपादान के बल पर ही मानते हैं तथा निमित्त को वहा सर्वथा अकिचित्कर मान लेते है और इसका कारण वे यह कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु के कालिक परिणमन निश्चित है तथा वे परिणमन अपनी-अपनी नियत उपादान शक्ति के बल पर अपने-अपने नियत समय मे विकास को प्राप्त होकर विनष्ट हो जाते हैं।