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________________ १८ ही उपादान शक्ति कार्य रूप परिणत हुआ करती है । इसका स्पष्टीकरण आगे अनुभव, युक्ति और आगम के आधार पर किया जायगा । (६) कार्योत्पत्ति मे निमित्त की अकिंचित्करता को सिद्ध करने के लिये प० फूलचन्द्रजी का एक तर्क यह भी है कि निमित्तभूत वस्तु भी अनादि काल से अपनी क्रमबद्ध पर्यायो मे परिणत होती चली आ रही है और उपादानभूत वस्तु भी अनादिकाल से अपनी क्रमवद्धपर्यायो में परिणत होती चली आ रही है । ऐसी दशा मे निमित्त को कार्य की उत्पत्ति मे कार्यकारी मानने की कोई आवश्यकता ही नही रह जाती है बात केवल यह है कि निमित्तभूत वस्तु मे कार्योत्पत्ति के अवसर पर चूकि कार्य के प्रति अनुकूलता समझ मे आती है अत उसमे कार्य के प्रति निमित्तता का व्यवहार मात्र ( कथन मात्र ) किया जाता है । प० जी का यह तर्क भी उनसे भिन्न मत रखने वालो को मान्य नही है इसका कारण यह है कि प० जी का तर्क उनके इस सिद्धान्त पर आधारित है कि जब उपादान कार्यरूप परिणत होता है तव तदनुकूल निमित्त भी वहा रहा करते हैं जब कि उनसे भिन्न मत रखने वालो का कहना है कि जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब तदनुकूल ही उपादान स्वयोग्यतानुसार कार्यरूप परिणत होता है । इसे भी आगे स्पष्ट किया जायगा ! (७) मूलत विवाद प० फूलचन्द्रजी के साथ जैनतत्त्वमोमासा को लेकर इस बात का है कि आगम मे जिस प्रकार कार्योत्पत्ति के विषय मे उपादानपरक कथन मिलते हैं उसी प्रकार निमित्तपरक कथन भी मिलते हैं इसलिये प्रश्न खडा होता है कि क्या दोनो कथनो मे से एक को सत्य और दूसरे को असत्य माना जाय इस सम्बन्ध मे मेरा कहना है कि ?
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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